अटल बिहारी वाजपेयी, अगर मैं कहूं कि नाम ही काफी है, तो सच नाम ही काफी है मेरे लिए. मेरा कोई नायक नहीं है जिससे प्रेरणा लेकर कुछ करने का हौंसला मिलता हो. ऐसा नहीं है कि कोई नायक नहीं है, दरअसल ये समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं.
नब्बे के दशक में जन्म लेने वाले मेरी पीढ़ी के लोगों ने किसी नायकत्व को नहीं देखा. हमारे दौर के लिए कोई जवाहर और इन्दिरा जैसा नहीं था, जो सबके स्मृति पटल पर छा जाए या अपनी लोकप्रियता से विस्मृत कर दे. हमारे इस खालीपन को भरा अटलबिहारी वाजपेयी ने.
कैसे थे अटल बिहारी वाजपेयी?
जब छोटे थे और कोई पूछता था की देश का सबसे अच्छा प्रधानमंत्री कौन है तो अनायास पूरे होश-ओ-हवास में बस एक ही नाम निकालता था, और वो नाम था अटल बिहारी वाजपेयी का. ऐसा इसलिए नहीं था कि वे सबसे अच्छे प्रधानमंत्री थे बल्कि ये इसलिए था की उन परिस्थितियों में मुझे उनसे बेहतर नहीं लगता.
13 दिन की सरकार गिरने का बाद संसद में उनका वक्तव्य है जब वो कह रहे हैं कि ‘राजनीतिक दल बनेंगे बिगड़ेंगे, नेता आयेंगे जायेंगे सरकारें भी आएँगी जाएंगी लेकिन ये देश, ये देश हमेशा रहेगा’. वाजपेयी का कथन किसी शाश्वत सत्य से कम नहीं है.
‘देश कोई जमीन का टुकड़ा नहीं’ इसमें रहने वाले लोग यहां की नदिययां पहाड़ जल जंगल जमीन एक देश बनाते हैं, जिसमें यहां रहने वाले लोग सबसे महत्वपूर्ण हैं. जबतक राजनीति या सरकारें इनका ख्याल नहीं रखतीं तब तक वे अपने को सफल नहीं मान सकतीं.
चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?
राह कौन सी जाऊँ मैं?
अटलबिहारी वाजपेयी एक राजनेता, कवि, दार्शनिक सबकुछ थे. वाजपेयी की छवियां या उनका चरित्र एक समानांतर रेखा जैसा था जो कहीं अनन्त में एक दूसरे से मिलती हैं. वाजपेयी के व्यक्तित्व का ये विरोधाभास कई बार उजागर हुआ. ये विरोधाभास उनकी अजातशत्रु की छवि के कारण भी था.
लोकल डिब्बा को फेसबुक पर लाइक करें.
वाजपेयी के बारे में विरोधी नेता एक बात बोलते हैं कि वे ‘गलत पार्टी में सही आदमी हैं’ ये वाजपेयी की व्यक्तिगत हैसियत थी जो उन्होने अपने लिये विरोधियों से कमाई थी. बीजेपी और वाजपेयी एक दूसरे के पूरक थे, उन्होने बीजेपी को बनाया था.
कांग्रेस जैसे वटवृक्ष के सामने भाजपा को खड़ा किया था. ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के सामने कोई चुनौती नहीं थी. थी, और उसके भीतर से ही थी कांग्रेस की राजनीति को उससे छिटककर निकले नेताओं ने कांग्रेस के विरोध में खड़े होने का साहस किया लेकिन कांग्रेस विरोध के लिए इतना काफ़ी नहीं था.
यह भी पढ़ें-पनामा नहर: 26 मीटर ऊपर उठा दिए जाते हैं पानी के जहाज
इसका कारण खुद विरोधी नेता ही थे जो कभी कांग्रेस में रहे थे. क्योंकि कांग्रेस सभी विचारों का संगम थी. और कोई भी व्यक्ति संगठन से बड़ा नहीं होता इसलिए बहुत समय तक कोई विरोधी नहीं रहा.
लेकिन वाजपेयी और संघ जिनके अथक प्रयासों से एक प्रतिरोध खड़ा हुआ जिसकी अपनी विचारधारा से लेकर संगठन तक सबकुछ था. संघ का चेहरा कोई रहा हो लेकिन राजनीतिक तौर पर वाजपेयी ही विपक्ष का चेहरा रहे.
वाजपेयी सिद्धांतवादी राजनीति, राजनीतिक सुचिता सम्वेदनाओं की राजनीति के आखरी व्यक्ति थे जिन्होंने अपने व्यक्तिगत दलगत हितों को परे रख देशहित के लिए जीवन जिया.
कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है.
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है.
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है.
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है.
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है.
वाजपेयी की ये कविता राजनीति का सच है जिसमें बस सत्ता का खेल होता है. वर्तमान में जब संवेदनाएं भावनाएं विरोधी का सम्मान अपशब्द कीमती आभूषण हों तब वाजपेयी किसी चौराहे पर खड़े अपनी ही कविता ‘कदम मिलाकर चलना होगा’ गाते गुनगुनाते मिल जायेंगे.