सवर्णों को आरक्षण: जानें, इसके ना मिलने के चांस ज्यादा क्यों हैं?

लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने एक और वादा कर दिया है, जिससे हम पिछले वादे भूल सकें। इस बार वादा किया है, सर्वण आरक्षण का है। मेरा मानना है कि एक बार को सरकार विकास ला सकती है लेकिन ये आरक्षण वाला वादा पूरा नहीं कर सकती क्योंकि जिस भी सरकार ने यह कोशिश की उसको मुंह की खानी पड़ी है।

 

पहले भी सरकारें आरक्षण ‘देती’ रही हैं लेकिन लागू कितना हुआ है, यह देखने वाली बात है। आपको जाट आरक्षण आंदोलन तो याद ही होगा! क्या-क्या नहीं हुआ था उसमें और सरकार ने अंत में आकर जाटों को आरक्षण देने का फैसला लिया। इसके बाद बात शुरु हुई और बात गई सुप्रीम कोर्ट तक और कोर्ट ने जाट आरक्षण को तुंरत खारिज कर दिया और कहा, ‘सिर्फ जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं हो सकती।’ इसके बाद 2015 में आरक्षण देने की कोशिश राजस्थान सरकार ने भी की। उन्होंने उच्च वर्ग के गरीबों के लिए 14 प्रतिशत और पिछड़ों में अति निर्धन के लिए पांच फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की लेकिन ये फैसला भी बस बात बन कर रह गया और अदालत ने इसे भी निरस्त कर दिया।

 

अगर आपको यह लगता है कि अपर कास्ट के लिए आरक्षण सिर्फ BJP सरकार लाई है तो आपको थोड़ा पीछे जाना चाहिए। 1991 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया था लेकिन ये ज्यादा दिन तक टिका नहीं। साल 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया, फिर साल 2006 में कांग्रेस ने एक कमेटी बनाई, जिसको आर्थिक रूप से पिछड़े उन वर्गों का अध्ययन करना था, जो मौजूदा आरक्षण व्यवस्था के दायरे में नहीं आते हैं। इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ। इसके अलावा कई दलित नेता भी सवर्ण आरक्षण की पैरवी कर चुके हैं। ये नाम कोई मामूली नाम नहीं हैं, ये देश के बड़े दलित नेताओं में गिने जाते हैं और इनके नाम हैं- रामदास अठावले, मायावती और राम विलास पासवान।

 

अब आप सोच रहे होंगे कि सुप्रीम कोर्ट बार-बार क्यों अटका दे रहा है तो आपको बताते हैं कि इसके पीछे कारण क्या है? दरअसल, सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला जिसके मुताबिक, आम तौर पर 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता। ये फैसला बालाजी बनाम मैसूर राज्य के मामला में लिया था, हुआ कुछ यूं था कि सरकार ने एक आदेश दिया, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 68 फीसदी आरक्षण निर्धारित किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इसको जरूरत से ज़्यादा मानते हुए ख़ारिज कर दिया और और कहा कि कुल आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। आप पूरा केस इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।

अभी 49% आरक्षण है, ऐसे में 10% सवर्णों को दिया जाएगा तो फिर से आरक्षण 50% से ज्यादा हो जाएगा और हर बार की तरह सर्वोच्च न्यायालय इसे खारिज कर देगा। अगर मोदी सरकार पहले की सरकारों की तरह इसे मजाक नहीं बनने देना चाहती है तो उसे संविधान संशोधन करना पड़ेगा। क्योंकि संविधान के मौजूदा प्रावधानों में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की कोई व्यवस्था नहीं है। सवर्णों को आरक्षण देने के लिए आरक्षण की सीमा को भी बढ़ाना होगा, यही नहीं इस संविधान संशोधन को पास करने के लिए के लिए दोनों सदनों में उसे दो तिहाई बहुमत चाहिए होगा लेकिन BJP के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, ऐसे में बिल फिर से लटक ही जाना है।