पिछले साल अमेरिका से आने के बाद राहुल गांधी देश के एक प्रखर वक्ता के रूप में उभरे हैं। उनकी भाषण कला में अचानक से बदलाव आया है। जिस कारण लोग उन्हें सुनने भी लगे हैं।
राजनीति में भाषण कला को महत्वपूर्ण माना जाता है। भारतीय सियासत में कभी अटल बिहारी वाजपेयी जैसे बेबाक वक्ता हुए तो वर्तमान में नरेंद्र मोदी सत्ता के साथ-साथ भाषण के मंच पर भी शासन कर रहे हैं। बात राहुल गांधी की करें तो वह जनता से जुड़ने के मामले में कुछ खास तारीफ नहीं पाते थे लेकिन अब वह अपने हर चुनावी मंच से प्रधानमंत्री के लिए कुछ सवाल छोड़ जाते हैं। कभी विकास पर तंज कसते हैं तो कभी जय शाह पर व्यंग्य कर जाते हैं। इस कारणवश लोगों की उत्सुकता उनमें बढ़ी है लेकिन क्या सिर्फ प्रधानमंत्री से सवाल पूछने भर से ही राहुल गांधी परिपक्व हो जाएंगे? कुछ ही आक्रामक रैलियों से जनता उन्हें प्रधानमंत्री का दमदार उम्मीदवार समझने लगेगी? इतने दिनों की मजाकिया छवि कुछ व्यंग्यों के साथ ही मिट जाएगी?
ऐसा नहीं है, क्योंकि राहुल गांधी की राजनीति की शुरुआत अब मानी जा रही है। जहां जीत का सेहरा भी इन्हीं के सिर पर बंधेगा तो हार के ठीकरे को भी बर्दाश्त करना ही पड़ेगा। इसीलिए उन्हें अपने हर भाषण और फैसले में संभलकर रहना पड़ेगा। सवाल पूछने के साथ-साथ उन्हें जनता को जवाब देने की भी आदत डालनी पड़ेगी। उन्हें जनता को कांग्रेस और खुद के प्रति आश्वस्त करना पड़ेगा लेकिन दिक्कत यह है कि राहुल गांधी जवाब देने के समय मौन रह जाते है। वह अपनी रैलियों में राफेल घोटाले का तो सवाल करते हैं लेकिन बोफोर्स पर जवाब देना भूल जाते हैं। वह प्रधानमंत्री के महंगे सूट पर तो व्यंग्य करते हैं लेकिन अपने महंगे जैकेट पर खामोश हो जाते हैं।
लोकसभा चुनाव आने में कुछ ही दिन शेष हैं। ऐसे में कांग्रेस को नीरव मोदी के रूप में भाजपा पर सवाल उठाने का बड़ा मौका मिला था। उन्होंने पीएनबी घोटाले पर प्रधानमंत्री से कुछ सवाल भी जरूर पूछे लेकिन ओरिएंटल बैंक के 110 करोड़ के घोटाले में अमरिंदर सिंह के दामाद गुरपाल सिंह के शामिल होने पर चुप्पी साध ली। कांग्रेस ने अपने ट्विटर पर से पोस्ट को भी हटा दिया। अब जो पार्टी अपने संबंधियों का नाम आने पर ट्विटर पर से ट्वीट ही हटा दे, वह दूसरों से ईमानदारी की क्या गुहार लगा सकती है?
अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद राहुल गांधी ने मणिशंकर अय्यर को कांग्रेस के प्राथमिक सदस्य से हटाकर अपनी आगामी राजनीति का परिचय दिया था। अय्यर ने प्रधानमंत्री को नीच कहा था तो उन पर तत्काल कार्रवाई कर दी गई थी लेकिन इन आरोपों पर चुप रहकर राहुल अपनी पाई हुई परिपक्वता खो बैठते हैं।
इस वर्ष मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक जैसे देश के बड़े राज्यों में चुनाव होने वाले हैं और देश की सबसे पुरानी पार्टी एक नव-निर्वाचित अध्यक्ष के हाथों में पोषित हो रही है। जो खुद को अब देश का प्रतिनिधि बताने को तैयार हैं। तब यह सवाल उठाना लाजमी हो जाता है कि क्या लोगों का भरोसा फिर से कांग्रेस में लौट आया है? जनता भाजपा से सिर्फ 5 वर्षों में ही थक चुकी है?
इतने सारे चुनावों का नेतृत्व और प्रधानमंत्री की दावेदारी पेश करने से पहले उन्हें समझना होगा कि सिर्फ एक गुजरात चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने से कांग्रेस की कोई साख वापस नहीं लौट सकती है। इसके लिए सबसे पहले उन्हें जनता में अपना भरोसा कायम करना पड़ेगा और फिर कांग्रेस का।
उन्हें कांग्रेस की पुराने छवि को जनता के मन से हटाना पड़ेगा क्योंकि सिर्फ अध्यक्ष बदल जाने से लोगों का पार्टी के प्रति नजरिया नहीं बदल जाता है। उन्हें गलतियों को जनता के बीच ले जाना होगा और अपनी पार्टी के दोषियों को भी निष्पक्ष रूप से सजा दिलवानी होगी।
बहरहाल, अभी लोकसभा चुनाव में एक वर्ष शेष है और इससे पहले राहुल गांधी को कई विधानसभा चुनावों में उत्तीर्ण होना है। राहुल और कांग्रेस को अपनी कार्यशैली बदलने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि सरकार बदलने का काम तो जनता का है।