आज भारत में दक्षिणपंथी विचारधारा को ओढ़ने वाली भारतीय जनता पार्टी का राज चलता है और देश में सबसे ताकतवर हैसियत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मानी जाती है। हालांकि, नरेंद्र मोदी की इस ताकत के पीछे का सबसे बड़ा राज उनके सबसे काबिल सलाहकार, दोस्त और उनके नायब अमित शाह हैं। राजनीति को समझने वाले लोग अकसर कहा करते हैं कि मोदी के होने से शाह नहीं बल्कि अमित शाह के होने से ही मोदी हैं।
ऐसी ही एक शख्सियत, जिनका नाम इतिहास में ऐसे ही एक नायब के रूप में लिखा गया है, उनका आज जन्मदिन है। 3 मई 1896 को केरल के कोझिकोड में एक धनी और प्रभावशाली वकील के बेटे के रूप में जन्म लेने वाले वी के कृष्ण मेनन ने जवाहर लाल नेहरू के लिए ठीक वैसी ही भूमिका निभाई, जैसी कि आज नरेंद्र मोदी के लिए अमित शाह निभाया करते हैं। जिस तरह आज तमाम पत्रिकाओं और सर्वे में अमित शाह को प्रभावशाली बताया जाता है, वैसे ही टाइम मैगजीन ने एक बार कृष्ण मेनन को नेहरू के बाद सबसे प्रभावशाली व्यक्ति बताया था।
लेबर पार्टी से बनने वाले थे सांसद
शुरुआती दौर में एनी बेसेंट के साथ होम रूल लीग और ब्रदर्स ऑफ सर्विस में काम करने वाले मेनन ने लंदन से उच्च शिक्षा हासिल की और काफी दिनों तक पब्लिशर्स और अखबारों के लिए संपादक का काम भी किया। कहा जाता है कि उन्हें लंदन की लेबर पार्टी ने संसदीय चुनाव में उतारने की तैयारी भी कर ली थी लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी से संबंधों के चलते उनको कैंडिडेट नहीं बनाया गया।
1929 से 1947 तक इंडिया लीग के सचिव के तौर पर काम करने के दौरान मेनन नेहरू के नजदीक आए और ये दोस्ती एकदम मजबूत हो गई। आजादी के बाद यूनाइटेड किंगडम में मेनन को भारत का उच्चायुक्त बनाया गया। उनपर सेना की जीपों को खरीदने में घोटाला करने का आरोप भी लगा लेकिन नेहरू का हाथ होने के चलते कुछ भी साबित नहीं हुआ।
मिला वफादारी का इनाम
1957 में मेनन को वफादारी का इनाम मिला और उन्हें देश का रक्षामंत्री बना दिया गया। मेनन ने ही देश में सैनिक स्कूल सोसाइटी की नीव रखी। हालांकि, मेनन के जीवन में सबसे बुरा दौर वह रहा जब 1962 में उनके रक्षामंत्री रहते भारत को चीन के हाथों मुंह की खानी पड़ी। मेनन ने जिम्मेदारी स्वीकार की और अपने पद से इस्तीफा दे दिया। 1967 के लोकसभा चुनाव में भी मेनन को हार मिली। हालांकि 1969 और 1971 में मेनन फिर से चुनाव जीते और सांसद बनते रहे।
1971 की लड़ाई में भारतीय थल सेना का नेतृत्व करने वाले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कहते थे कि 1962 में हार का कारण कुछ और नहीं बल्कि कमजोर नेतृत्व था। दरअसल, यहां सैम का जिक्र इसलिए जरूरी है कि मेनन के चलते ही सैम के प्रमोशन में दिक्कतें आईं और सैम मानेकशा पर नेताओं से छत्तीस का आंकड़ा रखने के चलते देशद्रोह का आरोप लगा।
यहां हुई चूक
बात 1957 की है जब इम्पीरियल डिफेंस कॉलेज लंदन से सैम विशेष ट्रेनिंग लेकर लौटे और उन्हें 26वीं इनफैनट्री डिवीजन का जनरल ऑफिसर कमांडिंग (GOC) बनाया गया। उस समय आर्मी के चीफ के एस थिमाया हुआ करते थे। तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्ण मेनन सैम के डिविजन के दौरे पर आए और सैम से के एस थिमाया के बारे में उनकी राय पूछी और सैम का जवाब था, ‘मंत्री जी, मुझे उनके बारे में सोचने कि परमिशन नहीं है क्योंकि वह मेरे चीफ हैं। कल आप ऐसे ही मेरे जूनियर ब्रिगेडियर्स और कर्नल्स से मेरे बारे में पूछेंगें। इससे सेना का अनुशासन बर्बाद होगा। कृपया दोबारा ऐसे सवाल ना ही पूछें।’
इस पर कृष्ण मेनन को गुस्सा आया और उन्होंने कहा कि वह चाहें तो अभी थिमाया को हटा सकते हैं, अब सैम ने जो जवाब दिया उसने उनके और सरकार के बीच एक खटास पैदा कर दी। सैम ने कहा, ‘आप उन्हें हटा देंगे तो क्या हुआ हम वैसा ही दूसरा ले आएंगे।’
तमाम मोर्चों पर झंडे गाड़ने और खुद का कूटनीतिक कौशल साबित करने वाले मेनन ने सैम मानेकशॉ को पहचाने में शायद बड़ी भूल कर दी थी। वो तो भला हो नेहरू का कि वे सैम को पहचाने और उन्हें फिर से आगे बढ़ाया और उसी का नतीजा भारत को 1971 की लड़ाई में देखने को मिला कि किस तरह भारत ने पाकिस्तान के सैनिकों को सरेंडर करने पर मजबूर कर दिया।