बता दे ये जमीं कैसे तुझे आजाद लगती है
जहाँ हक माँगना मजलूम की फरियाद लगती है।
कि जिनको है चुना हमने हमारी सरपरस्ती को
हमें उनकी ही नियत अब बडी नाशाद लगती है ।
है जिसके आँखों पे पट्टी, कि जो इन्साफ करती है
वो देवी अब मुझे धृतराष्ट्र की औलाद लगती है।
परिंदा खौफ के मारे कभी कुछ कह नहीं पाता
ये जनता जुल्म सहने की बडी उस्ताद लगती है।
मुहब्ब्त को सिखाओ तुम, सिखाओ तुम नहीं मजहब
मुहब्बत के बिना हर चीज बेबुनियाद लगती है।
(इस गीत के रचनाकार राहुल शिवाय हैं। राहुल कविता कोश के संपादक मंडली में हैं)
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