बेटवा! जेतना मन हो उतनी मटरगश्ती करना लेकिन माथे पर तुमको नीली बत्ती ठोकवा कर ही वापस आना है। ये बातें रामसुमेर ने सत्यप्रकाश को दिल्ली वाली टरेन में बिठाते हुए कहीं। और हाँ, उस रम्मू के बप्पा से भी तुम्हें ही बदला लेना है। ससुरे ने घुसलखाने वाली नाली की विवाद मे खूब हड्डियाँ दुरुस्त की थीं। आज भी पुरवैया चलती है तो दिन में तारे दिखने लगते हैं।
उम्मीदों के माउंट एवरेस्ट तले दबे सत्या बाबू आईएएस की खेती के नाम से मशहूर मुख़र्जी नगर में पधारे। वहाँ पर गाँव के ही चुनमुन बाबू उन्हें लेने आये। चुनमुन बाबू 10 साल से यहीं थे और अब वह नागफ़नी काया को प्राप्त कर चुके थे। दोनों लोग चुनमुन बाबू के दड़बे मे पहुँचे और कुछ ही मिनटों मे कोचिंग मे दाखिले को लेकर विश्वयुद्ध करने लगे।
चुनमुन बाबू अपने ज़माने की किसी आउटडेटेड कोचिंग को सुझा रहे थे जबकि सत्या बाबू पहले से ही अमुक कोचिंग मे दाखिले का माइंड मेक अप करके ही आये थे और वहीं लिये भी एडमिशन। कुछ दिन तक तो बाकायदा टेस्ट और आन्सर सीट जमा किये फ़िर वही ढाक के तीन पात हो गये।
अब तो दिन की शुरुआत खड्ग सिंह की चाय की दुकान पर ही होने लगी। जहाँ सत्या बाबू के एक पहर यानि 3 घंटे व्यतीत होते थे। यहाँ पर चर्चा तो अंतर्राष्टीय सम्बन्ध पर शुरू होती थी किंतु अंत अंतरखिड़की सम्बन्ध पर होता था। जिसमे संजय बाबू की लवेरिया की चर्चा होती तो गीता मैडम के मौसमी प्यार का भी जिक्र होता।
दुपहरी मे धूप की तासीर और इच्छानुसार कोचिंग की सैर करने जाते और ज्यादातर उस समय शयन ही करना पसंद करते थे। हाँ मंगलवार को हनुमान मंदिर नही जाना भूलते थे।
शाम को फ़िर खड्ग सिंह की दुकान पर एक कटिंग चाय लेते और पार्क पहुँच जाते। जहाँ पर रात्रि के दूसरे पहर तक अपनी ज्ञान गंगा की शेखी बघारते और तैयारी मे आये नये पाहुनौ को चने से भी थोथा ज्ञान देते। इन कर्मों के सहारे ना जाने उनका कौन सा एग्जाम निकलेगा यह तो यक्ष प्रश्न है। हाँ गाँव में धान-गेहूँ बेचते-बेचते सुमेरवा का दिवाला निकल जायेगा और एक दिन थक-हार कर वह सत्या बाबू का वापसी का टिकट कटवा देंगे ।
और एक और नाकामी गाथा गाँव-ए-आम हो जायेगी कि फलां एग्जाम निकालना ईश्वर को प्राप्त करने जैसा है।
अनेकों अनुभव को देखने वाला संकर्षण शुक्ला