भक्तो! मजबूर तुम हो, बीजेपी और अमित शाह नहीं

विकल्पहीनता धीरे-धीरे निरंकुशता को जन्म देती है। भारतीय राजनीति में भी एक बार फिर से यह प्रासंगिक हो चला है। इंदिरा-संजय गांधी की जोड़ी के बाद अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी भी हर जगह वही करती है, जो वो चाहती है। इंदिरा ने भी संगठन में खुद से बड़ा किसी को बनने नहीं दिया और मोदी ने भी शंकर सिंह वाघेला और आडवाणी समेत तमाम नेताओं के साथ वही किया।

पार्टी किसी की भी हो जाए लेकिन बनाते उसे कार्यकर्ता ही हैं लेकिन एक वक्त आता है जब तानाशाही की ओर बढ़ रहे नेतृत्व को कार्यकर्ताओं से आगे कुछ सीटें जिताने वाले नजर आने लगते हैं। कार्यकर्ता टूटता जाता है, हारता जाता है। ऐसे ही समर्पित कार्यकर्ताओं या फिर कहें दिनभर अपनी पार्टी को डिफेंड करते लोगों को ‘भक्त’, ‘ट्रोल’ और ‘आपिया’ जैसे शब्दों से नवाजा जाता है।

कौन हैं ये भक्त?

आजकल सबसे बड़ी समस्या में भक्त हैं। भक्त शब्द ज्यादातर बीजेपी समर्थकों के लिए किया जाता है। यहां भी भक्त से उन्हें ही संबोधित किया जा रहा है। आजकल अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी हर जगह चुनाव जीत रही है। अमित शाह की राजनीति का एकमात्र तरीका यह है कि वह अपना काडर मजबूत करने से ज्यादा भरोसा दूसरी पार्टी के नेता को ‘खरीदने’ में विश्वास रखते हैं। हाल ही में बसपा और सपा के पूर्व नेता नरेश अग्रवाल को बीजेपी में शामिल कर लिया गया। अमित शाह को भी पहले से पता था कि नरेश अग्रवाल के नाम पर कार्यकर्ता खुश नहीं होंगे लेकिन गुजरात की जोड़ी भक्तों की एक नब्ज पकड़ चुकी है। वह जानती है कि भक्तों में इतना साहस ही नहीं कि वह किसी और की ओर देखें। बीजेपी के कार्यकर्ता विकल्पहीन हो गए हैं। यहां तक कि अगर उनसे कोई कह दे कि निर्दलीय चुनाव लड़ जाओ तब भी वे पहले अमित शाह की ओर देखेंगे।

नरेश अग्रवाल के मामले पर भी वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी। सोशल मीडिया पर एक बड़ा वर्ग नरेश अग्रवाल के बीजेपी में शामिल होने से बीजेपी को कोसता नजर आया। अब भक्त भी बेचारे करें तो क्या करें? बीजेपी को वोट देना छोड़ नहीं सकते, कांग्रेस में कुछ बचा नहीं, खुद में हिम्मत नहीं तो इससे अच्छा नरेश अग्रवाल ही सही।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *