माथे पे लिखी मेरी रुसवाई नहीं जाती…
जब भूख लगी तब मैं, या प्यास लगी जब तब
मैं हाथ लगी अक्सर, बस मांस लगी जब तब
बाक़ी किसी लमहे में, मैं पायी नहीं जाती…
या पेट के नीचे मैं या पेट के ठीक ऊपर
हस्ती है मेरी इतनी मैं वो हूं जो हूं बाहर
मैं पूरी की पूरी तो अपनायी नहीं जाती…
लहंगा कभी चुनरी हूं, मुजरा कभी ठुमरी हूं
गीतों में या ग़ज़लों में, बस हुस्न सी उतरी हूं
क्यूं शब्द में मेरी सब सच्चाई नहीं जाती…
ज्ञानी है ऋषि भी वो औतार वही अक्सर
है मर्द ही सूफ़ी भी, है मर्द ही पैग़म्बर
विश्वास के क़िस्सों में, मैं लायी नहीं जाती…
माथे पे लिखी मेरी रुसवाई नहीं जाती.
भवेश ❤शाद
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