ग्वालियर से चलकर बनारस की ओर जाने वाली बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस गाड़ी स्ंख्या 11107, अपना पिछला स्टेशन छोड़ चुकी है और कुछ ही क्षणों में अपने अगले पड़ाव महोबा स्टेशन पहुंचने वाली है। महोबा पहुंचने वाली ये गाड़ी अपने पीछे जो स्टेशन छोड़ कर आयी थी वो स्टेशन था हरपालपुर। रक्षाबन्धन की छुट्टियों के बाद हमें वापस कर्मभूमि पर जाना था। चार दोस्तों की चौपट चौकड़ी साथ थी। पंच प्यारों की टोली के पांचवे प्यारे महोबा में हमारा इन्तजार कर रहे थे। ट्रेन अपनी आदत के अनुसार 1 घन्टे लेट थी।
जैसे-तैसे महोबा पहुंचे मित्र को फोन किया कि
प्रभु आप कहां हैं?
जवाब आया खजुराहो लिंक के पास।
उनसे कहा कि
सामान लेकर इंजन के पीछे वाले डिब्बे में आओ।
फोन कटा सामान की ढुलाई चालू हो गयी। कुछ सामान पहुंचा कुछ छूटा। ट्रेन चल पड़ी।
मित्र बोले सामान पूरा ले जाना है, वर्ना हम नहीं जाने वाले। उनकी बात भी सही थी। मम्मी के हाथ के बने लड्डु सेव, खुर्मा और न जाने क्या-क्या कैसे छोड़ देते।
सामान छूट रहा था ट्रेन चल पड़ी थी। मित्र बाहर थे हम पायदान पर लटके। उनको हाथ हिलाकर आवाज दे रहे थे जल्दी आओ। ट्रेन ने धीरे धीरे गति पकड़ी, मित्र छूटते जा रहे थे।
अब किया जाये?
संजय चैन पुल कर? राजेश नहीं आ पाया।
मैं नहीं कर रहा हूं, कर बे।
अशोक तू कर।
रुको में करता हूं, संजय चैन खींच देता है। गाड़ी रुक जाती है। सब पूछते हैं क्या हुआ?
अशोक चिल्लाता है चुप रहो सब, हमारा दोस्त नीचे रह गया है। एक बाबु मोशाय नियम बताते हैं तभी एक आवाज आती है तड़ाक।।। ये थप्पड़ था जो अशोक ने बाबु मोशाय के गाल पर चिपकाया था।
जीआरपी के कभी न मिलने वाले दो सिपाही आते हैं। आते ही पहला सवाल चैन क्यों खींची?
दोस्त पीछे रह गया था। बड़ा याराना लगता है?
अब चलो?
कहां?
जेल।
काहें ?
यारी नहीं निभानी क्या?
वो तो हम ट्रेन में निभा लेंगे।
पहले जेल में निभा लो फिर कल ट्रेन में निभा लेना।
क्यों कैसा रहेगा?
अच्छा है।
चलो फिर आज जेल भी देख लेते हैं। चल प्रदीप आज जेल चलते हैं।पगला है का? कल पेपर है।
अरे छोड़ न।
अरे! नहीं यार बाप बहुत मारहें।
सो तो है। और हम पहुंच जाते हैं जेल।
स्वागत होता है सवालों से। ऐसा क्यों किया? ये गलत है। पढ़े-लिखे हो फिर भी ऐसा करते हो? अरे साहब दोस्त छूट रहा था?
वो कल आ जाता।
कल उसका पेपर है?
अब भूल जाओ।
बहुत मनाया, देसी तरीका अपनाया लेकिन कोई फायदा नहीं।
प्रदीप बाबु परेशान 2-4 जगह फोन किया, हर तरफ से निराशा। स्टेशन पर भटकते रहे डर था कोई देख न ले। आखिर महोबा उनका घर था।
क्या किया जाये?
हम अन्दर वो बाहर रोने की हद तक परेशान। बार बार आके कहते यार बहुत डर लग रहा है। उसे डर लग रहा है मुझे हंसी आ रही है। दिल दिलासा दे रहा है, तू डर मत क्यों परेशान होता है? बड़े लोग जेल आते रहते हैं।
एक पुलिस वाला अंदर आया। का बेटा धरा गये का?
हां।
चोरी में या छेड़छाड़ में?
चुप, चोर उचक्का लगता हूं क्या?
शक्ल से तो नहीं लेकिन का भरोसा?
अच्छा अब बताओ कि काहे में पकड़े गये?
चेन पुलिंग में।
का?
हां। तब तो कुछ न होगा।
मतलब?
कुछ नहीं।
अरे! बताईए न?
बेटा, पता है चेन पुलिंग में क्या होता है?
नहीं? क्या होता है?
2000 हजार फाईन या फिर 6 महीने की सजा या फिर दोनों।
क्या? हां।
अब तक सब मजाक में लेने के बाद पहली बार डर लगा। अब क्या होगा?
पापा को पता लगेगा तो क्या कहेंगे ऐसे न जाने कितने सवाल मन में उमड़ने लगे। अब तक की बातें सुनकर प्रदीप रोने लगा।
ओए छोटु! 3 चाय और कुछ खाने को ले आ।
मिश्रा जी क्या ले आऊं?
बेटा क्या लोगे?
कुछ नहीं, बस चाय मंगा दीजिये।
छोटु! जा चाय और 2 बिस्कुट के पैकेट ले आ।
अच्छा।
घर से बाहर पहली बार किसी ने बेटा कहा था। मन को बड़ा सुकून मिला। लेकिन सुकून का क्या करते जब बाहर एक दोस्त रो रहा था। पहली बार किसी दोस्त को रोते देखा था। थोड़ा सा हम भी रो लिये।
चाय आ चुकी थी। चाय की चुस्की लेने के लिये मुहँ खोला। अंकल कुछ पढ़ने को मिलेगा?
बेटा यहां तो कुछ नहीं है कहो तो दुकान से मंगा दूं?
देख लीजिये।
मैं उनके पैसे खर्च नहीं कराना चाह रहा था लेकिन जब उन्होनें मुहँ खोला और बोला पैसे सरकार को देने हैं।
मुझे आश्चर्य हुआ! फिर क्या, हमने भी कह दिया ले आइये।
मिश्रा जी किताब लेने जाने लगे। एक मौका मुझे भी दिखा बाहर जाने का लेकिन उम्मीद टूट गयी, जब उन्होनें कहा कि तुम कल तक यहां से बाहर नहीं जा सकते।
पहली बार एहसास हुआ की आजादी क्या होती है। आजादी की भी कीमत होती है। वैसे तो जेल भी सीमेन्ट और रेत से मिलकर बने कमरे होते हैं पर यहां सबकुछ अपनी मर्जी से नहीं होता है। जेल में आप गुलाम होते है लेकिन आप गुलाम नहीं रहना चाहते। चाहते हैं कि कोई आप पर राज न करे। आप स्वतन्त्र रहना चाहते हैं तो कीमत चुकाने के लिये तैयार रहिये।
किताबें आईं उनको पढ़ा, चाय भी पीता रहा। मिश्रा जी छोटू से कह गये थे कि जो भी मांगे दे देना। इस तरह चाय की चिन्ता से मुक्त हो चुके थे। जेल की टीवी में गाने सुनते, चाय पीते हुए भोर हो गयी।
प्रदीप बाबू पिता जी को फोन कर चुके थे। रात भर रोने के कारण आंखें लाल थीं लेकिन अब क्या लाल हों या पीली? ऐसे ही बैठे हुये स्टेशन की भीड़ को देख रहे थे। मुसाफिर आ जा रहे थे। उस छोटे से कमरे के बाहर सबकुछ हो रहा था और मैं इस कमरे में टहलने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता था।
आखिर में 10 बजे पुलिस वाला आया, बोला चलो तुम्हें पेशी पर चलना है।
हम भी तैयार बैठे थे बल्कि कब से इन्तजार कर रहे थे खुली हवा में सांस लेने के लिये। दरवाजा खुला हथकड़ी लिये एक सिपाही आया बोला हाथ आगे करो।
घूरकर उसकी तरफ देखा। उसने फिर वही बात दोहराई।
अबकी बार गुस्सा फूट पड़ा।
गुस्से में कहा, क्यों?
सिपाही बोला ‘बांदा’ लेकर चलना है?
तो! भाग जाऊंगा क्या?
भाग गये तो?
भगोड़ा नहीं हूं, और तुम्हें अधिकार किसने दिया हथकड़ी लगाने का।
आईएएस के लिये करी कोचिंग का ज्ञान काम आ रहा था, सो उसको 2-4 धाराएं बता कर हथकड़ी लगने से छुटकारा पा लिया।
हथकड़ी, इससे पहले भी डर लगता था और अब जब लगते लगते बची थी तब इसके डर को महसूस किया था।
खैर, हम बांदा के लिये निकले। 2 घन्टे के सफर के बाद ‘बांदा’ पहुंचने पर पता चला कि मजिस्ट्रेट साहब अभी आये नहीं हैं।
वहां घूमते रहे। एक पुलिस वाला साथ में था।
पुलिस वाले के साथ होने से विचित्र भाव मन में आ रहे थे। कभी मन्त्रियों सा फील आ रहा था जिसको सोचकर गर्व हो रहा था, तो कभी किसी बड़े अपराध में पकड़े गये दोषी सा।
मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। 5 मिनट सुनने के बाद साहब बोले बताओ तुम्हें क्या सजा दी जाये?
आप मुझसे पूछ रहे हैं?
हां।
जो आपकी मर्जी।
फाइन और जेल या फिर कोई एक?
जो आपकी मर्जी।
मेरी दी सजा पूरी कर पाओगे?
आप सजा तो दीजिये।
तो ठीक है एक हजार का जुर्माना भर दो।
ठीक है। कोई और सजा तो नहीं है?
नहीं, अब तुम जा सकते हो।
मंगल इनके हाथ पे मुहर लगाओ।
हाथ पर मुहर लगी।
मजिस्ट्रेट ने कहा आप जा सकते हैं। और हां 24 घन्टे तक आप बिना टिकट कहीं भी घूम सकते हैं। लेकिन अबकी बार चेन पुलिंग मत करना।