9 साल पहले एक लड़की और एक नौकर को बेरहमी से मारा गया, पहुंचे-पहुंचाए लोगों का मामला था इसलिए खूब कवर हुआ और फिल्म भी बन गई लेकिन न्याय व्यवस्था आज भी अपराध के सामने हांफती दिख रही है। सीबीआई की दलीलों और सबूतों के दम पर निचली अदालत ने लड़की के माँ-बाप को दोषी पाया और सजा सुनाई। केस थोड़ा ऊपर पहुंचा तो माननीय हाई कोर्ट द्वारा पाया गया कि आरोपियों के खिलाफ तो सबूत ही नहीं हैं।
अगर सबूत नहीं थे फिर तो कानून और न्याय व्यवस्था को तलवार दंपती से लिखित माफी मांगनी चाहिए ना? आपके पास सबूत नहीं थे और आपने किसी को यूं ही सालों तक पकड़े रखा? खैर, मेरी सहानुभूति इस दंपती से नहीं है। मेरी सहानुभूति अपने देश के इस लाचार दिख रहे क़ानून और न्याय व्यवस्था से है। कमाल है कि एक कोर्ट कहती है कि ये रहे दोषी और इनको सजा दी जाए, दूसरी कोर्ट कहती है कि नहीं ये दोषी नहीं हैं। अब दोषी तो बाद में ढूंढा जाएगा, उससे पहले तो यही सुनिश्चित किया जाए कि लोवर कोर्ट्स पर भरोसा किया जाए या नहीं! क्या हर मामले में आरोपी या अपराधी को अपना फैसला होने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचने में लगने वाले वक्त तक अपनी जिन्दगी कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने में बितानी होगी?
एक तरफ तलवार दंपती खुशियां मना रहे हैं तो सीबीआई फैसले की फाइल पढ़कर मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने की प्रक्रिया में लग गई है। अब मान लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट में तलवार दंपती को दोषी पाया गया तो भरोसा किस पर करना चाहिए? ऐसी स्थिति में क्या न्यायालय भरोसेमंद बचता है या नहीं? क्या इस स्थिति में इन ऊंंची अदालतों में बैठे जजो की इमानदारी पर शक नहीं किया जाना चाहिए?
कल आए फैसले के बाद सिर्फ यह लगा कि यह मामला तलवार दंपती को निर्दोष बताने के लिए ही चल रहा है। इस बात की कहीं चर्चा ही नहीं है कि अगर इन लोगों ने हत्या नहीं की तो आखिर आरुषि-हेमराज को मारा किसने? क्या इन दोनों की हत्या अब एक छोटा मामला हो गई है?