एग्जिट पोल सिर्फ ‘आका’ को खुश करने की कवायद भर हैं?

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग खत्म भी नहीं हुई थी कि तमाम हिंदी ‘न्यूज’ चैनलों ने एग्जिट पोल दिखाकर अपने-अपने मालिकों के प्रति अपनी स्वामिभक्ति दिखानी और साबित करनी शुरू कर दी थी। हर तरफ होड़ लग गई थी कि कौन खुद को ज्यादा वफादार साबित कर दे। अगर इन चैनलों का बस चले तो एग्जिट पोल के नाम पर अपने-अपने हिसाब से ये मुख्यमंत्री को शपथ भी दिला दें।

कर्नाटक में ज्यादातर चैनलों का रुझान है कि किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा और पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा ही किंगमेकर होंगे। ऐसे में सिंगल लार्जेस्ट पार्टी होने के नाते बीजेपी की सरकार बनने के ज्यादातर चांस दिखाए गए। हालांकि, इस बार देवगौड़ा की राजनीति और उनके ही यस-नो से कर्नाटक में पत्ता खिसकेगा, ऐसा चुनाव से पहले भी नजर आ रहा था।

यहां सवाल एग्जिट पोल्स की गंभीरता और उसकी विश्नसनीयता पर है। कैसे कोई चैनल वोटिंग खत्म होने के कुछ ही मिनटों में 222 विधानसभाओं पर रुझान बताकर लगभग निर्णय देने की स्थिति में होता है। इसके लिए पब्लिक की राय कैसे ली जाती है? लगभग 40 करोड़ मतदाताओं में से कितने लोगों की राय को सैंपल मान लिया जाता है और क्या उतने भी लोगों से राय ली जाती है? गौर करेंगे तो आप भी पाएंगे कि आपने भी कभी किसी एग्जिट पोल या ओपनियिन पोल में शायद ही अपनी राय बताई हो लेकिन चैनलों के पास डेटा आ जाता है।

ना तो चैनल ऑनलाइन या फोन लाइन के जरिए ही वोटिंग कराते हैं और ना ही फेसबुक-ट्विटर पर वोटिंग होती है। पैनल में बैठने वाले लोगों में कोई भी एक्सपर्ट ऐसा नहीं होता है, जो आंकड़ों की असली समझ रखता हो। रायचंद वही होते हैं जो हर रोज हर मुद्दे पर अपनी राय देते रहते हैं। नतीजों के इंतजार में बैठी एकतरफा जनता जल्दी से मान बैठती है कि कौन जीता और कौन हारा। हालांकि, अकसर इक्का-दुक्का छोड़के ज्यादातर एग्जिट पोल्स गलत ही साबित होते हैं। ऐसे में क्या इन चैनलों को अपने एग्जिट पोल गलत हो जाने पर माफी नहीं मांगनी चाहिए?