तलाक से UV/PV बटोरते संपादक पत्रकारिता की कब्र खोद रहे हैं

तीन नवंबर 2018 को अचानक से खबर मोबाइल की स्क्रीन पर फ्लैश हुई कि शादी के 6 महीने के भीतर ही तेजप्रताप ने अपनी पत्नी ऐश्वर्या राय से मांगा तलाक. तेज प्रताप लालू यादव के बड़े बेटे हैं. नीतीश सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं. हालांकि बनने लायक थे ही नहीं. अगर आम आदमी के घर पैदा हुए होते तो उन्हें बउरहा कहा जाता. इसका मतलब किसी अवधवासी से पूछिएगा, ज्यादा बेहतर बताएगा.

 

कुछ देर बाद ही खबरों की बाढ़ आ गई. लगातार खबरों पर खबरें. तेज प्रताप, तेज प्रताप का हल्ला मच गया. आम जनता को मजा आ रहा था. नहीं, दरअसल हम उन्हें मजा दिलाने की कसम खा चुके हैं. जनता को चटपटी खबरें पसंद नहीं, हम उन्हें ऐसी खबरों की गंदी आदत में फंसा रहे हैं. सिर्फ एक वेबसाइट नहीं, कुछ एक को छोड़कर सारी वेबसाइटों ने तेज प्रताप की माला जपी है. तेज प्रताप कहां हैं, कैसे हैं, क्यों टूट रहा है रिश्ता. क्या रास नहीं आई तेज प्रताप को पढ़ी-लिखी पत्नी. हाई क्लास लड़की नहीं संभल पाई तेजू बाबा से.

 

कुछ वेबसाइटों का वश चलता तो यहां तक छाप देते कि तेज प्रताप कहां पोटी करते हैं, किस भांति की करते हैं, रंग क्या होता है. हद है. तेज प्रताप के तलाक से आम जनता को क्या फर्क पड़ने वाला है. देश की जीडीपी या ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में कुछ कमाल हो जाएगा अगर लालू के परिवार के मैटर सॉल्व हो जाएगा. क्या घटिया और बेहूदा खबरें लिखने से देश की आर्थिक स्थिति सुधर जाती है? क्या सड़कों पर सोए लोगों को छत नसीब हो जाती है? किसानों के हालात सुधरें चाहे भाड़ में जाएं. किसी को खाक फर्क पड़ता है.

 

सिर्फ न्यूज वेबसाइट ही नहीं, इस दौर में टीवी, अखबार सब का हाल यही है. सोचकर देखिए कितने टीवी चैनलों पर जनता की बात होती है. राम मंदिर, हिंदू-मुसलमान, बीजेपी-कांग्रेस, राफेल किससे किसका भला होने जा रहा है. राम मंदिर बने या न बने कितनों को दो वक्त की रोटी नसीब होगी. आम जनता को घंटा नहीं फर्क नहीं पड़ता कि मंदिर बने या मस्जिद बने. न भगवान को ही कुछ फर्क पड़ने वाला है.

 

गुस्सा तब आता है जब यही संपादक दांत चियारते हुए मीडिया एथिक्स की बात करते हैं. इन्हें सिर्फ नौकरी करनी है. पत्रकारिता से मतलब नहीं है. अच्छी कहानियों से मतलब नहीं है. अगर ढंग की कहानियां चार ही लगें और बल्क में खबरें न भी जाएं तो भी वेबसाइट उतने ही फायदे में रहेगी. तेज प्रताप के बेडरूम में न झांके, तैमूर की पोटी न साफ करें, खेसारी लाल का गाना न देखें और किसी हिरोइन का बेबी बंप पर कहानी न लिखें तो भी वेबसाइट हिट कराई जा सकती है.

 

दरअसल यह बात सही है कि जितने भी  संपादक हैं उन्होंने पाठकों को दसवीं पास ही समझा है जिसे खबरें नहीं, मजा दिलाने में ही मोक्ष है. पाठकों को अच्छा पढ़ाएंगे तो वे अच्छा पढ़ेंगे. लेकिन पाठकों को घोंचू समझने में जो आनंद है वही परमानंद है. संपादकों को उसी में मजा आता है.

 

पत्रकारिता की कब्र तथाकथित पत्रकार ही खोद रहे हैं, वे पत्रकार जो खुद को बेस्ट समझते हैं, जो एडिटर बन गए हैं. जिन्हें लगता है सब-एडिटर घोंचू होते हैं उन्हें सिर्फ आदेश दिया जाता है, कुछ भी लिख मारने का. वे बिना किसी विरोध के ऐसा करने के लिए तैयार हो जाते हैं क्योंकि अंतत: उन्हें भी संपादक ही बनना है.

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