राजनीति, चुनाव और जाति. इन तीनों का काफी गहरा संबंध है. खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में. बाकी राज्यों में भी जाति काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन उत्तर प्रदेश में बिना जाति के एक पत्ता हिलना भी असंभव सा लगता है. उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं. लगभग आठ महीने पहले से सभी राजनीतिक दलों में ‘जातियां’ साधने की होड़ लगी है. दुर्भाग्य ये है कि न तो पांच साल के काम की बात सत्ता पक्ष करना चाहता है और न ही विपक्ष मुद्दों को लेकर चुनाव में उतरता है. उससे भी बड़ी बात ये है कि पांच साल सड़क, बिजली, पानी, खेती, रोजगार और तमाम समस्याओं से दो-चार होने वाली जनता भी आखिर में अपनी जाति का नेता ढूंढने लगती है.
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हिंदुत्व के साथ-साथ जातियों के माइक्रो मैनेजमेंट में लगी है बीजेपी
सबसे पहले बात सत्ता पक्ष यानी बीजेपी की. 2014 और 2017 में हिंदुत्व का अजेंडा आगे करके, परदे के पीछे से जातियों को साधकर बीजेपी ने अभूतपूर्व जीत हासिल की. बीजेपी ने समाजवादी पार्टी से कई पिछड़ी जातियों को तोड़ा, बहुजन समाज पार्टी से गैर जाटव दलितों को तोड़ा, अपना दल और ओम प्रकाश राजभर जैसे कई दलों का साथ मिला तो बीजेपी के पक्ष में एक लहर पैदा हुई. बीजेपी के पास प्रचंड बहुमत है, केंद्र में भी और राज्य की सरकार में भी. इसके बावजूद आखिर में उसे फिर जातियों को साधने का प्रयास करना पड़ रहा है.
संत परंपरा से आने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर उनकी ही पार्टी के नेता और मंत्री आरोप लगाते रहे हैं. एक खास जाति को बढ़ावा देने के भी आरोप लगे. कोरोना की दूसरी लहर में तो ये आरोप इस कदर बढ़े कि योगी आदित्यनाथ को दिल्ली तलब किया गया, लखनऊ में भी जमकर मंथन हुआ. ब्राह्मणों को साधने के लिए कांग्रेस से जितिन प्रसाद लाए गए. पिछड़ी जातियों के लोग नाराज न हों, इसके लिए संघ और बीजेपी इस कदर परेशान है कि साढ़े चार साल केशव प्रसाद मौर्य से सीधे मुंह बात न करने वाले सीएम योगी आदित्यनाथ खुद चलकर केशव के घर पहुंचे और ‘सबकुछ ठीक है’ का संदेश देने की कोशिश की.
जनाधार वापस लाने में जुटे अखिलेश यादव
अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी अपना कुनबा जुटाने में लग गए हैं. उनके लिए एक अच्छी खबर ये हो सकती है कि बसपा और कांग्रेस को भी मिलने वाला मुस्लिम वोट इस समय सपा के पीछे ही लामबंद नज़र आ रहा है. हालांकि, असदुद्दीन ओवैसी भी हाथपैर मार रहे हैं और उन्होंने 100 सीटों पर लड़ने का ऐलान किया है. अखिलेश यादव भले ही यह कहें कि ‘काम बोलता है’, लेकिन सिर्फ़ काम पर वोट मांगने का खामियाज़ा वह 2017 में भुगत चुके हैं. इसलिए इस बार वह भी ओबीसी में यादव के साथ-साथ अन्य जातियों और सवर्ण, दलित के साथ-साथ अति पिछड़ों को भी साथ लाने की कोशिश में जुटे हैं. इसके लिए उन्होंने कई जातियों के आधार पर बनी छोटी-छोटी पार्टियों से गठबंधन की बात भी कही है.
दलित राजनीति होगी अहम
दलितों के हित की बात करने वाली बहुजन समाज पार्टी लगातार कमजोर होती गई है. लोकसभा चुनाव 2019 में समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बाद भले ही उसे 10 सीटों का फायदा हुआ हो, लेकिन इस चुनाव में उसे कमजोर माना जा रहा है. दूसरी तरफ, चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व वाली आजाद समाज पार्टी खुद को बसपा का विकल्प बताने में जोर-शोर से लगी हुई है. खुद चंद्रशेखर कहते हैं कि वह चाहते हैं कि बीजेपी के खिलाफ बड़ा गठबंधन बने. इस सबके बीच बसपा चीफ मायावती का बीजेपी के प्रति सॉफ्ट होना, नेताओं का लगातार पार्टी से बाहर होना और जमीन पर पार्टी की सक्रियता कम होना बसपा के लिए चिंता का विषय है. 2017 के चुनाव में बीजेपी ने दलितों के वोट में भी सेंध लगाई थी और उसके वोट प्रतिशत में अभूतपूर्व इजाफा हुआ था. ऐसे में दलित वोट हर किसी के लिए अहम होने वाले हैं.
हारी हुई लड़ाई लड़ने उतरेगी कांग्रेस?
कांग्रेस 30 सालों से उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर है. 2004 से 2014 तक केंद्र में यूपीए की सरकार रही, लेकिन यूपी में लगातार कांग्रेस कमजोर हुई. बीते सालों में तो कांग्रेस का सबसे बुरा वक्त आया. 2017 के चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बावजूद कांग्रेस सिर्फ़ सात सीटें जीत पाई. 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी की सिर्फ़ दो सीटों पर जीत मिली. 2019 में खुद राहुल गांधी अमेठी से चुनाव हार गए. अब यूपी में कांग्रेस का कामकाज सीधे तौर पर प्रियंका गांधी देख रही हैं. हालांकि, कांग्रेस अभी भी यह तय नहीं कर पा रही है कि वह पहले संगठन मजबूत करे या पहले चुनाव जीतने की कोशिश करे. इसी ऊहापोह में फंसी कांग्रेस कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं है. इस बार अगर सपा और भाजपा में सीधी लड़ाई होती है, तो यह भी संभव है कि कांग्रेस सात से भी कम सीटें जीत पाए. जातियों को साधने के मामले में भी कांग्रेस पीछे ही है. कभी दलितों, सवर्णों और मुसलमानों के वोट पाने वाली कांग्रेस से सभी वोटबैंक छिटक गए हैं.
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जाति की ही होगी जीत?
कुल मिलाकर सभी पार्टियों की नजर में जाति अहम है. इस बात की संभावना बहुत कम है कि, योगी सरकार अपने काम पर वोट मांगे. दिखाने के लिए भले काम के पोस्टर छपें, लेकिन जातियों को साधना ही सबकी अहम रणनीति है. अभी से केंद्रीय मंत्रिमंडल में जाति के हिसाब से नंबर गेम सेट किया जा रहा है. पार्टियों के संगठनों में जाति के हिसाब से प्रतिनिधित्व दिया जाने लगा है. कमोबेश इसी आधार पर टिकट भी दिया जाएगा. अब जब सारा काम जाति पर ही होगा, तो जनता क्यों पीछे रहे. जनता भी जाति के हिसाब से वोट भी दे ही देगी.