आज जन्मदिन है भारतीय थल सेना के उस नायक का जिसपर आरोप लगते थे कि वह देशद्रोही और सरकार द्रोही हैं। उनकी क्षमताओं पर सवाल उठाए गए कि उन्हें युद्ध का कोई खास अनुभव नहीं है। देशद्रोह का आरोप झेलने वाले सैम मानेकशॉ आगे चलकर ना सिर्फ भारतीय सेना से जनरल बने बल्कि उन्हें पद्म भूषण और पद्म विभूषण के साथ-साथ उन्हें भारतीय सेना की सर्वोच्च रैंक फील्ड मार्शल से भी नवाजा गया। सैम पहले ऐसे भारतीय बने, जिसे यह रैंक प्राप्त हुई।
कहा जाता है कि सैम मानेकशॉ सेना में नेताओं के हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं करते थे और सेना को सेना की तरह काम करने देने के पक्षधर थे। 1 अक्टूबर 1932 को जब भारत में इंडियन मिलिट्री अकैडमी की स्थापना हुई तो 40 में से 6वीं रैंक हासिल करने वाले सैम भी यहां ट्रेनिंग लेने पहुंचे। सैम के साथ ही स्मिथ दून और मोहम्मद मूसा भी थे, जो आगे चलकर क्रमश: बर्मा और पाकिस्तान के आर्मी चीफ बने। इंडियन मिलिट्री अकैडमी के इन पहले कैडेट्स को ‘द पायनियर्स’ कहा गया।
भारतीय सेना जॉइन करने से पहले सैम ब्रिटिश आर्मी की तरफ से द्वितीय विश्व युद्ध में लड़े। विभाजन के समय 12वीं फ्रंटीयर फोर्स रेजीमेंट (चौथी बटालियन) पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई, इसके बाद सैम 16वीं पंजाब रेजीमेंट का हिस्सा बन गए।
बात 1957 की है जब इम्पीरियल डिफेंस कॉलेज लंदन से सैम विशेष ट्रेनिंग लेकर लौटे और उन्हें 26वीं इनफैनट्री डिवीजन का जनरल ऑफिसर कमांडिंग (GOC) बनाया गया। उस समय आर्मी के चीफ के एस थिमाया हुआ करते थे। तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्ण मेनन सैम के डिविजन के दौरे पर आए और सैम से के एस थिमाया के बारे में उनकी राय पूछी और सैम का जवाब था, ‘मंत्री जी, मुझे उनके बारे में सोचने कि परमिशन नहीं है क्योंकि वह मेरे चीफ हैं। कल आप ऐसे ही मेरे जूनियर ब्रिगेडियर्स और कर्नल्स से मेरे बारे में पूछेंगें। इससे सेना का अनुशासन बर्बाद होगा। कृपया दोबारा ऐसे सवाल ना ही पूछें।’
इस पर कृष्ण मेनन को गुस्सा आया और उन्होंने कहा कि वह चाहें तो अभी थिमाया को हटा सकते हैं, अब सैम ने जो जवाब दिया उसने उनके और सरकार के बीच एक खटास पैदा कर दी। सैम ने कहा, ‘आप उन्हें हटा देंगे तो क्या हुआ हम वैसा ही दूसरा ले आएंगे।’
सैम के बारे में जितना लिखा जाए कम ही होगा लेकिन उनकी सबसे बड़ी सफलता जो थी वह थी 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध। सैम की नेतृत्व कुशलता के दम पर भारत ने पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। हालांकि, इससे पहले एक मीटिंग में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा कि सैम किस बात का इंतजार कर रहे हो, हमला करो। सैम मानेकशॉ ने प्रधानमंत्री को दो टूक जवाब देते हुए कहा कि मैं हारने के लिए लड़ाई नहीं लड़ूगा, चाहें तो आप मेरा इस्तीफा ले लें।
दरअसल, उस समय मानसून आने वाले थे और सैम को अच्छे से पता था कि ऐसे में लड़ना आसान नहीं होगा। बांग्लादेश (पूर्वी-पाकिस्तान) के पास नदियों में पानी बढ़ना तय था और ऐसे हालात में सैनिकों के लिए लड़ना आसान नहीं होता। इसके अलावा एक कारण यह भी था कि भारत के पास जो हथियार थे, वे अलग-अलग जगह तैनात थे और उस समय जल्दी से उन्हें एक जगह तैनात करना इतना आसान नहीं था।
सैम को इंदिरा गांधी ने इस्तीफा देने से रोका और उनकी सलाह ली। सैम के नेतृत्व में भारत ने मुक्ति-वाहिनी के लोगों को सैन्य प्रशिक्षण दिया और उनकी भरपूर मदद ली। नतीजा सामने था, हजारों सैनिकों के साथ पाकिस्तानी सेना ने घुटने टेक दिए और भारत को सही मायनों में एक युद्ध जीतने में सफलता हासिल हुई।
सैम के बारे में यह भी चर्चित था कि वह स्पष्टवादी किस्म के थे। उन्होंने एक बार कहा था कि जिन्ना ने उन्हें पाकिस्तानी सेना में शामिल होने को कहा था। सैम का तर्क था कि अगर वह पाकिस्तानी सेना में होते तो भारत 1971 की लड़ाई जीत नहीं सकता था। सैम ने यह भी कहा कि अगर भारत का सैन्य नेतृत्व 1965 में मजबूत होता तो भारत वह लड़ाई भी नहीं हारता।