कठुआ की वारदात से मंदिर शब्द नहीं हटाया जा सकता. वो मंदिर अब धर्म का प्रतीक नहीं रहा. वो मंदिर अब वो नहीं रहा जिसमें भगवान रहते हैं. वो मंदिर धर्म के नाम पर फैल रहे फासीवाद और कट्टरता का प्रतीक बनाया गया.
दरअसल, इस पूरी वारदात को मंदिर से हटाकर इसलिए भी नहीं देखा जा सकता क्योंकि इस घटना के पीछे धार्मिक द्वेष है. और यही नहीं आठ साल की बच्ची के साथ जो हुआ उसमें समाज में व्याप्त लगभग हर समस्या का प्रतिबिंब है यही फासीवाद का नीचतम रूप है.
एक गरीब बंजारन लड़की को योजनाबद्ध तरीके से अपहृत करके एक मंदिर में उसके साथ बलात्कार किया जाता है, और वो भी अन्य संप्रदाय के लोगों में भय व्याप्त करने के लिए. आरोपियों में एक पुलिस अफसर भी शामिल है जो इसी के अपहरण की प्रारंभिक जांच कर रहा था.
आरोपियों के बचाव में ‘हिंदू एकता मंच’ द्वारा रैली निकाली जाती है जिसमें तिरंगा लहराया जाता है और भारत माता की जय बोली जाती है. साथ ही इस रैली में रोहिंग्या एवं अन्य मुसलमानों को जम्मू से बाहर करने के भी नारे लगते हैं. और इस रैली का नेतृत्व भारत की सबसे शक्तिशाली पार्टी के विधायक कर रहे थे.
अगर इस पूरी घटना में आप सिर्फ बलात्कार देख रहे हैं तो आपकी नजर कमजोर है. जिस तरह आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, उसी तरह फासीवाद का भी कोई धर्म नहीं होता. लेकिन याद रहे जिस तरह आतंकवाद के प्रचार में धर्म का सहारा लिया जाता है उसी तरह फासीवाद के प्रचार में भी धर्म मुख्य सहायक हो रहा है. फासीवाद और आतंकवाद में ज़्यादा फर्क नहीं होता है. इसलिए जिस तरह हमें आतंकवाद के द्वारा धर्म के इस्तेमाल पर सचेत रहना चाहिए उसी तरह फासीवाद के प्रति भी रहना चाहिए.
(गौरव त्रिपाठी का लेख)