थाती से कविता मिली और प्रतिभा से सिंहासन। अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के इतिहास के कभी न मिट सकने वाले अध्याय हैं। राजनैतिक विश्व के इस त्रिभुजाकार भूगोल पर उनके जीवन का बहुकोणीय हस्तक्षेप उनके नाम की तरह ही अटल है। इमरजेंसी की पीड़ा, जनता पार्टी का गठन और उसके बाद उनकी सार्वजनिक जिंदगी की उठापटक, इन सभी घटनाओं से उपजी सहज मानवीय अनुभूतियों को कविताओं में सहेजने वाले अटल बिहारी देश के अजातशत्रु शख्सियतों में गिने जाने वाले चुनिंदा राजनेताओं में शामिल हैं। अपनी कविताओं में अटल कभी अपने हिंदुत्व और देश की गौरवशाली परंपरा पर गर्व करते हुए कहते हैं कि ‘मैं अखिल विश्व का गुरू महान’ तो कभी इमरजेंसी की पीड़ा को शब्द देते हुए कहते हैं ‘आज़ादी का दिन मना/नई ग़ुलामी बीच/सूखी धरती, सूना अंबर/मन-आंगन में कीच।’ अटल अपनी कविताओं में अपने राजनीतिक जीवन का प्रतिबिंब खींचते हैं और ‘कदम मिलाकर चलना होगा’, ‘आजादी अभी अधूरी है’ और ‘पड़ोसी’ जैसी कविताओं से अपने जीवनकाल का दस्तावेज तैयार करते हैं। आज हम आपको कवि अटल बिहारी वाजपेयी की पांच कविताओं से भेंट कराने वाले हैं।
1. बाधाएं आती हैं आएं
बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
2. आओ फिर से दिया जलाएं
आओ फिर से दिया जलाएँ।
भरी दुपहरी में अंधियारा,
सूरज परछाई से हारा,
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल,
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल.
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
3. टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से,
न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है,
किरण अंतिम अस्त होती है।
दीप निष्ठा का लिये निष्कंप,
वज्र टूटे या उठे भूकंप,
यह बराबर का नहीं है युद्ध,
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध,
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज।
किन्तु फिर भी जूझने का प्रण,
अंगद ने बढ़ाया चरण,
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते।
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।
4. दो अनुभूति
पहली अनुभूति:
गीत नहीं गाता हूँ।
बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं,
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
लगी कुछ ऐसी नज़र,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ।
गीत नहीं गाता हूँ।
दूसरी अनुभूति:
गीत नया गाता हूँ।
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर,
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात,
कोयल की कुहुक रात,
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पाता हूँ।
गीत नया गाता हूँ।
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी,
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी,
हार नहीं मानूँगा,
रार नहीं ठानूँगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ।
गीत नया गाता हूँ।
5. ऊंचाई
ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
किन्तु कोई गौरैया,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।
ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
कि पाँव तले दूब ही न जमे,
कोई काँटा न चुभे,
कोई कली न खिले।
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।