गांव से ताल्लुक रखने वाले लोग कथरी (गुदड़ी) को खूब समझते होंगे। हमारी और हमारे पूर्वजों को बचपन में फोम और रूई के गद्दे नहीं मिला करते थे बल्कि पुराने कपड़ों को ही रीसाइकिल करते हुए, उनसे एक बिस्तर नुमा कथरी बनती थी।
मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि जिनका जिक्र आज यहां कर रहा हूं, उनको मैंने अपनी आंखों से देखा है, कानों से उनको ओजस्वी आवाज में अवधी की कविताएं पढ़ते सुना है और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया है। कविता जब हम नहीं भी समझते थे तब भी जुमई खां आजाद की ‘कथरी’ हमारी जुबान पर चढ़ने लगी थी। 29 दिंसबर 2013 को बेहद अभाव की अवस्था में आजाद जी चल बसे। 5 अगस्त 1930 को जन्मे आजाद हमेशा पूंजीवादी व्यस्था के खिलाफ रहे और खुद भी गरीबी में ही जीते रहे।
आजाद बाबा अपना परिचय अपनी इन पंक्तियों से देते थे…
हम न हिंदू अही ना मुसलमां अही।
जाति मनई कै आटै पहरुआ अही।
‘देस-सेवा’ इहै एक बाटै धरम।
अपनी माई कै हमहूं दुलरुआ अही।
आजाद बाबा पैदाइशी मुसलमान थे लेकिन आप जब उनकी कविताओं के संकलन ‘कथरी’ को पढ़ेंगें तो पाएंगे कि पहली कविता ‘सरस्वती वंदना’ है। बाबा को मैंने नमाज पढ़ने मस्जिद जाते देखा है और ‘सीता माता की खोज’, ‘मां गंगा की उत्पत्ति’, ‘राधा-कृष्ण का प्रेम प्रसंग’ और ‘जय हो धरती मइया’ जैसे शीर्षक के साथ उनकी कविताएं पढ़ीं हैं। उनकी कविता ‘कथरी’ और ‘बड़ी-बड़ी कोठिया’ समाज को एक बेहतरीन आईना दिखाती हैं।
आजाद जी के बारे में हमारे गांव में कई किस्से मशहूर हैं, जिनका जिक्र यहां कर पाना संभव नहीं है लेकिन उनके बारे में यह बड़े गर्व से कहा जाता है कि वह जन कवि थे। हमेशा जनता की आवाज को कविता बनाने वाले आजाद का अमिताभ बच्चन जैसे बड़े कलाकार से काफी वर्षों तक पत्र संवाद भी चलता रहा था।
केशव तिवारी फेसबुक पर अपने एक संस्मरण में लिखते हैं कि वे एक बार जब वह जुमई खां आजाद से मिलने उनके गांव के पास पहुंच तो क्या हुआ…
आज अचानक गांव के हरकू गड़रिया से सुना— ‘कथरी तोहार गुन ऊ जानै जे करै गुजारा कथरी मा’ तो फिर तय किया कि आज जुमई से मिलकर ही लौटूंगा भले बेल्हा में रुकना पड़े। खैर मैं और मेरा एक रिश्ते का अनुज दोनों निकल पड़े।
पहले सुल्तानपुर रोड पर किसी ने बता दिया। वहां झिनका पर लेटे अपने जमाने के नौटंकी के हीरो रामकरन मिले जो दमा के मरीज हो चुके थे। उन्होंने आजाद का पता दिया। हम लैाटे और बिहारगंज से गोबरी गांव के लिये निकल पड़े। रास्ते मे पता चला जगेशरगंज स्टेशन के बाहर झगरू की चाय की दुकान पर आजाद का पता चलेगा।
झगरू की दुकान पर पहुंचते ही पता चला कि आजाद आर.पी.से (रायबरेली प्रतापगढ़ पैसेन्जर) से संध्या तक आयेगें, आप चाय पियें, बैठें। हम भी जम गये। झगरू चाय आजाद के नाम लिख लिये और पैसे नहीं लिये। ये उन्हें आजाद के मेहमानो के लिये कहा गया था। खैर शाम हुयी और डेली पेसेंन्जर का रेला उतरा। उसी में कमीज पैजामा पहने मझियौले कद का एक व्यक्ति दुकान में घुसा।
झगरू बोले, आजाद ये लेाग चार घंटे से बैठे हैं, आपके इंतजार में। वह लपके और गले लग गये। जैसे वर्षो से जान रहे हों। मिलते ही सब अपरिचय छूमंतर हो गया। अब शुरू हुआ बातों का सिलसिला तो एक लड़का बोल पड़ा, आजाद कुछ हुयि जाय। बाबू साहब से तौ तोहार बात चलतइ रही। उन्होंने सहज ही उसकी बात को मान लिया। ये था जन का और उसके कवि का रिश्ता।
जैसे उन्होंने शुरू किया, ‘भरे रे पूंजीपतिया तै रोटिया चोराय चोराय। करीब सौ लोगों का मजमा जुट गया और यातायात बाधित हो गया। धीरे-धीरे सब झगरू की दुकान के इर्द-गिर्द सिमट आये। ये सम्मान देख मैं लगभग चकित था और एक दहाड़ती आवाज गूंज रही थी। अब लोग धीरे-धीरे छट चुके थे। शुरू हुआ बातों का सिलसिला।
वहीं बात चली कि एकबार काला कांकर के महल में अज्ञेय जी आए तो धोबियहवा नाच हुआ। पैर में घुंघरू बांधे जब धोबी ने गाया, ‘बिना काटे भिटवा गडहिया न पटिहैं, अपनी खुसी से धन-धरती न बटिहैं’ तुरंत अज्ञेय ने पूछा, यह किसका गीत है? जुमई खां आजाद का लिखा है, यह पता चलते ही अज्ञेय ने जुमई से मिलने की इच्छा जाहिर की। जब एक व्यक्ति जुमई को बुलाने उनके घर पहुंचा तो उन दिनों जुमई बहराइच कवि सम्मेलन मे गये थे। लौटे तो पत्र मिला और वाकया पता चला। बोले, “भइया, ई गीत तौ राजा-महाराजा के खिलाफ अहै। कतउ बुलाइ के गंड़ियां न धूप देंय। तब हम न गये।”
जुमई एक समय गरीब-गुरबा की आवाज बन गये थे। उनका किसी गांव ठहर जाना, किसी के दरवाजे खा लेना, एक पूरा का पूरा जनपद उनका घर हो गया था। जुमई खां हम से बोले, तुम्हउ सुनावा। कुछ सुनकर बोले — “बात तो खड़ी में करत हया पर माटी-पानी सब अपनै अहै।”
हाल ही में प्रतापगढ़ के मशहूर गायक रवि त्रिपाठी ने आजाद जी की कविताओं को अपने सुरों से सजाते हुए एक विडियो भी तैयार किया है। अगर आपने ‘कथरी’पढ़ी नहीं है तो रवि के इस गीत में सुन सकते हैं…