वाह रे अपनी सुब्ह-ए-बनारस, घाट के पत्थर जैसे पारस

काशी न सिर्फ शिव की नगरी अपितु गंगा की और संगीत की नगरी है। संगीत जो वहाँ गंगा के कल-कल, छल-छल की ध्वनि के साथ वहाँ की आबोहवा में रमा है। बिस्मिल्ला खान,बेगम अख्तर, गिरिजा देवी ,पंडित छन्नूलाल इन सभी ने बनारस घराने को विश्व पटल पर अंकित किया।

संगीत कभी मौन नही होता, बस ठहरकर अगला आलाप लेता है। ठुमरी को पहचान देने में बनारस घराने की दीपशिखा गिरिजा देवी का मौन हो जाना ऐसा है जैसे गंगा की गति भी मानो थम सी गयी हो। आज मानो संगीत ने काशी से विदाई ले ली हो। संगीत आज कितनी विविधता लिये हो पर पारंपरिक संगीत आज भी उतना ही लोकप्रिय और सक्रिय है। पद्मश्री से सम्मानित गिरिजा देवी ने ठुमरी, चैती, कजरी को संगीत की लोकप्रियता की ऊँचाईयों तक पहुँचाया।

काशी आज मौन है। पारंपरिक लोकगीत चाहे कजरी हो या ठुमरी को अपने सुरो से सजाने वाली शास्त्रीय संगीत की लौ, आज संगीत को स्वयं में समाहित किए माँ गंगा की गोद में सदैव के लिए चिरनिद्रा में विश्राम करने चलीं गयीं।

ममत्व का स्वरूप गिरिजा देवी का स्वर अब काशी की गलियों में गूँजायमान होता मानो कह रहा हो..
“बाबूल मोरा नैहर छूटो री जाय”

काशी तुम्हारे संगीत के अम्बर का एक तारा और अस्त हो गया। पंडित छन्नूलाल जी काशी की ये संगीत की विरासत अब आपके श्री चरणों में…..