parsona movie

पर्सोना: इंसानी दिमाग की परतें खोल देने वाली शानदार फ़िल्म

शब्द और भाषा कितने आवश्यक हैं? आख़िर भाषा से ही तो समझे न जाने का भी दुःख पनपता है. यह दुःख किसी व्यक्ति तो इतना मरोड़े कि वह भाषा ही छोड़ दे? इंगमर बर्गमैन अपनी फ़िल्म पर्सोना में आततायी भाषा की अनुपयोगिता के कंधे पर चढ़कर कुछ प्रश्न खड़े करते हैं. मसलन वह भाषा के उस पार पसरे मौन को खँगालने की कोशिश कर रहे होते हैं. हर फ्रेम इतनी कंजूसी से खर्च किया जाता है कि यदि वह न हो तो फिर शायद वह फ़िल्म अधूरी हो जाती.

फ़िल्म की कहानी दो व्यक्तित्वों के घुलने की है, जो एक साथ रह रहे होते हैं. दो महिलाएँ- एक मौन, एक वाचाल. पर्सोना से बर्गमैन शायद दु:स्वप्न को दिखाते हैं, जिसे यथार्थ में कल्पना करना भी सिहरा देने वाला हो. आख़िर, हमें किसी का साथ कितना बदल सकता है?

लोकल डिब्बा को फेसबुक पर लाइक करें।

कैसे बदलाव लाता है मौन?

किसी सस्ते अखबार के घटिया कॉलम में (जिसे शायद पन्ने भरने को डाला जाता था, जब शहर की घटनाएँ उभरी नहीं होती थी) यह लिखा था कि हमारे दोस्त हमारे डीएनए को रूपांतरित कर देते हैं. यानी हम जिनके साथ रह रहे होते हैं, या जिनके साथ ज्यादा वक़्त बिताते हैं, वे हमें धीमे धीमे बदल देते हैं. इसकी वैज्ञानिक सत्यता मैंने कभी नहीं जाँची. यूँ कहिये कि यह स्मृति के किसी स्टोर रूम में ऐसे पड़ा हुआ था कि इसे कभी नोटिस ही नहीं किया. जब यह उभर कर सामने आया तो इसपर यकीन करने का मन हुआ. मन की इच्छा के विरुद्ध तर्क कौन खोजे? पर यह बदलाव भी शब्दों, आइडियाज से होता है, मौन यह बदलाव कैसे लायेगा? एक्सट्रीम या फिर बिल्कुल नहीं?

 पर्सोना शुरू होती है एक बीमार थिएटर एक्ट्रेस से जिसकी देख-रेख के लिये एक युवा नर्स रखी जाती है. थिएटर एक्ट्रेस जिसका नाम एलिसाबेट वोगलर है, वह किसी भी बीमारी से ग्रसित नहीं है. उसने अचानक से भाषा का त्याग कर दिया है. वह किसी भी ऐसे काम करने को मना कर दी है जो उससे उम्मीद की जाती है, जैसे बोलना, चलना, लिखना, एक्ट करना, माँ बनना, पत्नी बनना. वह थिएटर के माध्यम से एक्टिंग को इतने करीब से समझ चुकी होती है जिससे वह यह जानती है कि उसके द्वारा किया गया हर कार्य दरअसल में एक एक्ट है, एक चोला है जो उसे अब उतार देना चाहिए. वह किसी को कुछ एक्सप्लेन नहीं करती – आख़िर हमारी जिम्मेदारी अपने तक की ही होती है, दूसरों को कुछ भी क्यों एक्सप्लेन करें. उसकी डॉक्टर उनसे कहती है कि उन्हें क्या लगता है, वह अस्तित्व के निराशाजनक सपने को नहीं जानती? यानि एलिसबेट के लिये यह जीवन एक निराशा से लबरेज सपना है जिससे वह जाग चुकी हैं. सबकुछ त्याग कर के.

ना सुने जाने से बड़ा श्राप क्या हो सकता है

24 वर्षीय नर्स जो एलिसाबेट के देखभाल के लिये रखी जाती है, वह उसके साथ एक समर हाउस में रहने जाती है. दोनों कुछ समय तक एक दूसरे के साथ रह रहे होते हैं. नर्स काफी कुछ बोलती है, वह उस स्ट्रेंजर को अपने भीतर के दबे सारे राज बताने लगती है. उसे पहली बार इतनी वरीयता मिली होती है, उसे सुना जा रहा होता है. ना सुने जाने से बड़ा श्राप क्या हो सकता है. यदि मेरी आवाज़ अचानक म्यूट हो जाये तो यह मेरे लिये सबसे बड़ा दुःस्वप्न होगा. और इतनी बड़ी एक्ट्रेस, जिसकी काफी पूछ है, वह उसे सुन रही है, इंटेंटली. ध्यान मग्न होकर. इस प्रसन्नता में वह बह जाती है.

एक दृश्य है जिसमें नर्स, एलिसाबेट के नहीं बोलने से मानसिक रूप से परेशान होकर कहती है, “क्या एक व्यक्ति यूँही रह सकता है, बिना बकवास किये, बिना झूठ बुने, क्या वह एक जेन्युइन आवाज़ में बातें कर सकता है, जिसमें कोई भी झूठ ना हो?” वह खुद को भीतर से बाहर रखने की प्रक्रिया में कैसे अपने मौन साथी के भीतर को समझने लग जाती है, और फिर अंत तक शायद दोनों में कोई अंतर नहीं रह जाता.

कैसी है सिनेमैटोग्राफी?

उपनिषद कहते हैं, यथार्थ के एक परत नीचे हम सब एक ही हैं. मौन उन्हें उस परत पर पहुँचा देता है. वह दोनों एक हो जाती हैं. यही थीम है फ़िल्म का पर देखना उसको एक अनुभव है जिसे जाया नहीं किया जा सकता. सिनेमेटोग्राफी की उम्दा तकनीकों का प्रयोग, हर सीन किसी भीतर दबी जरूरत से उपजा हुआ, और मानव साइक की भीतर की भयावह यात्रा, इस सिनेमा को आला दर्जे का बना देती है.

बर्गमैन सिनेमा में सपने और यथार्थ को साथ-साथ बुनते हैं. उनके मुताबिक सिनेमा ही सबसे सफल रास्ता है इसको रिप्रेजेंट करने का. वह सिनेमाई मास्टर की तरह इसको बखूबी कर के भी दिखाते हैं. पर्सोना, 1966 की फ़िल्म, एक मैडिटेशन है. मानवीय एक्ट, और उससे उभरने की साइक पर एक लम्बा मैडिटेशन. यह चिरकालिक ध्यान व्यक्ति के यथार्थ और अस्तित्व से पहले और उसके बाद भी चलता रहेगा, क्योंकि हम सब एक लेवल नीचे, एक ही तो हैं.

शोर वाली ध्वनियों से संगीत बनाते हैं बर्गमैन

अपने सिनेमा में ब्रूटल इमेजरी का प्रयोग करने वाले बर्गमैन, इसमें भी वही करते हैं. ऐसी चीजों के ध्वनियों से संगीत निर्माण करते हैं जिसे हम शोर समझते हैं. आख़िर शोर क्या है? आर्डर की कमी. जहाँ, बर्गमैन के किरदार आर्डर तोड़ते हैं, वह स्थापित संगीत का भी आर्डर तोड़ देते हैं. एक नई रचना करते हैं, जिसे भी संगीत ही कहा जायेगा. ऐसे व्यक्ति को रचते हैं, जिसे व्यक्ति ही कहा जायेगा. कहीं ज्यादा पका हुआ व्यक्ति. विजुअल ट्रीट, फिलोस्फिकल क्वेस्ट, और सिनेमाई अनुभवों को समेटे हुए है बर्गमैन की यह फ़िल्म.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *