लप्रेक: एक ऑफलाइन मुलाकात

आज जब तुम मिली तो पता नही क्यों फेसबुक और व्हाट्सऐप की डीपी से ज्यादा सुन्दर लगी ? शायद वास्तविकता की यही खूबसूरती है।
वहाँ तो तुम्हे देखकर झटपट लाइक कर दिया करता था, मगर आज मुझे तुम्हें देखना है, देखना है तुम्हारे चेहरे को जिसमें जिंदगी के फिल्टर्स साफ नज़र आ रहे हैं ( इंस्टाग्राम से बिल्कुल अलग ) एकदम नेचुरल।

तुम्हारे आपस में उलझे सिल्की बाल जैसे मुझे सफर के दौरान विंडो सीट पर बैठे तेज़ हवा के थपेड़ों के साथ हुए संघर्ष की कहानी बतला रहे हों।

इंस्टाग्राम पर अक्सर तुम्हारी पलकें जो मोबाइल के फ़्लैश से आधी बन्द रह जाती थीं, आज दोपहर की तेज धूप में भी कितनी सधी हुई लग रही हैं, इतनी कि एक बार मैंने अपना गॉगल्स उतारकर उनमें अपना चेहरा देखने की कोशिश करनी चाही, मगर प्लेटफार्म पर भीड़ का डर और फिर ऐंटी रोमियो स्क्वाड के ख्याल ने एकदम से सचेत कर दिया।

नहीं , यहाँ तो बिल्कुल नहीं…!!
और वैसे भी आंखों में जाकर खुद के चेहरे को देखना दरअसल फासले को कम और नज़दीकियों को बढ़ाना होता था तो वो काम मैं तुम्हे गले लगाकर कर चुका था।



यह लप्रेक अटल शुकल ने लिखा है।