रात दरवाज़े पर दस्तक दे रही है
रात अब दरवाज़े पर खड़ी है रह-रह के सायरन की सदा आ रही है.
जहां बातें होंगी हिंदी इस्टाइल में
रात अब दरवाज़े पर खड़ी है रह-रह के सायरन की सदा आ रही है.
हर सरहद को तोड़ ही देगी आज़ादी दुनिया भर को घर कर देगी आज़ादी. दिल में रह-रह मौज उठेगी आज़ादी…
अब नहीं हैं प्रणययार्थी, न उनकी गणिकाऐं, वो गदिराए बदन भी नहीं हैं जिनपर लिख सको कामसूत्र जैसा ग्रंथ तुम…
इसी इक मोड़ पर अक्सर गिरा जाता है ऊंचाई से अपनी ज़ात और ख़ाका मिटाया जाता है सब कुछ हो…
फिर से हम जिन्दा लाशें,अपने मरे हुए सपनों से, नाउम्मीदी ओर जिल्लत की जिंदगी सेफिर से हम आपके रुके हुए…
माना अपने गांव में, रहता बहुत कलेस। कुल पीड़ा स्वीकार है, ना जाइब परदेस।
डर से निजात पा चुकीं, जीने को मरने आ चुकीं, धरने पे मुल्क ला चुकीं, ज़िद इनकी है बहाल, सलाम..
दुष्यंत चले गए. उनकी ग़ज़लें अमर हैं. जिन्होंने दुष्यंत कुमार को नहीं देखा, वे एहतराम साहब से मिल सकते हैं.…
नज़र आता है डर ही डर, तेरे घर-बार में अम्मा नहीं आना मुझे इतने बुरे संसार में अम्मा. यहाँ तो…
तुम्हारे कुछ चुंबन बचे हैं मेरे होठों पर कुछ मेरे भी बचे हों शायद तुम्हारे पास ये हमारे पहले चुंबन…