दंगों के बीच जूझती एक प्रेम कथा, सत्य व्यास की ‘चौरासी’

‘मैं चाहता हूं कि मुझे और मेरे दुख को आप खुद ढूंढें और यदि ढूंढ पाएं तो समझें कि आप के किए की सजा शहर को भुगतनी पड़ती है. तारीख किसी शहर को दूसरा मौका नहीं देती’

इन शब्दों में एक शहर का दर्द झलक रहा है कि कैसे वो अपने अतीत में झांक कर अपने साथ हुए उन कारनामों को शब्द दे रहा है, जिसने उसके आंख के आंसू सुखो दिए. दरअसल, यह शब्द उपन्यासकार सत्य व्यास के उपन्यास ‘चौरासी’ में बोकारो शहर के हवाले से उकेरे गए हैं. जो 1984 में हुए सिख दंगों की पृष्ठभूमि पर एक प्रेम कथा की व्यथा बता रहा है.

युवा उपन्यासकार सत्य व्यास ने अपनी लेखनी और संजीदगी से उन युवाओं पर गहरा प्रभाव बनाया है जो डिजिटल हो चली इस दुनिया के साथ आज भी किताबों के पन्नों से कदमताल मिलाकर चलते हैं. झारखंड के बोकारो से ताल्लुक रखने वाले सत्य व्यास ने अपने दो बेस्टसेलर उपन्यासों ‘बनारस टॉकीज’ और ‘दिल्ली दरबार’ से खूब लोकप्रियता बटोरी.

पूर्व की दोनों किताबें कॉलेज और रोमांस पर आधारित थीं. चौरासी भी एक प्रेम कथा ही है, लेकिन खास बात यह है कि यह 1984 के दंगों के पृष्ठभूमि पर आधारित है. जहां बोकारो का परिवेश दिखाया गया है. अगर यह कहा जाए कि यह उपन्यास दंगों के बीच प्यार का एक अफसाना है तो शायद ही कोई अतिशयोक्ति होगी.

उस समय बोकारो नया-नया बसा था. और जैसा अक्सर होता है कि सिख समुदाय अपने बिजनेस कौशल्य के कारण देश के कोने-कोने में अपनी जगह और पहचान बना लेते हैं. उस दौरान भी बोकारो में सिखों का पहुंचना शुरू हो चुका था. लेकिन 1984 में सिख विरोधी दंगों के समय जो हुआ, पूरे देश ने उसे देखा. बोकारो भी उससे अछूता नहीं रहा.

कहानी में चार किरदार हैं. मुख्य किरदार का नाम ऋषि है. ऋषि भी दंगों से ही सम्बंधित है. ऋषि जिस लड़की से प्रेम करता है, उस लड़की और उसके परिवार को बचाने में वह लड़का खुद किस कदर दंगाई हो जाता है, इस उपन्यास में वही दर्शाया गया है.

इसमें उस शहर की व्यथा भी है जो दंगों के कारण विस्थापन का दर्द झेलता है. मसलन,
‘अब मेरा परिचय? मैं शहर हूँ- बोकारो. मेरे इतिहास में न जाएं तो वक़्त बचेगा. वैसे भी इतिहास तो मैदानी इलाकों का होता है जहां हिंदुकुश की दरारों के बरास्ते परदेशी आते गए और कभी इबारतें तो कभी इमारतें बनाते गए. उनके मुकाबिल हम पठारी, लल-मटियाई ज़मीनों को कौन पूछता है? हमारी कहानियां किसी दोहरे, किसी माहिये या तवारीख़ में भी नहीं आतीं. इसीलिए हम अपनी कहानी ख़ुद ही सुनाने को अभिशप्त हैं.

अभिशप्त यूं कि आजादी के 25 साल बाद भी 3 अक्टूबर 1972 को पहला फावड़ा चलने से पहले तक मुझे कौन जानता था, उद्योगों में विकास खोजते इस देश को मेरी सुध आई. देश की प्रधानमंत्री ने मेरी छाती पर पहला फावड़ा चलाया और मैं जंगल से औद्योगिक नगर हो गया। नाम दिया गया- ‘बोकारो इस्पात नगर’ पहली दफ़ा देश ने मेरा नाम तभी सुना.

मगर दूसरी दफ़ा जब देश ने मेरा नाम सुना तो प्रधानमंत्री की हत्या हो चुकी थी और मैं शर्मसार हो चुका था. मैं आपको अपनी कहानी सुना तो रहा हूं, लेकिन मैंने जानबूझकर कहानी से ख़ुद को अलग कर लिया है. इसके लिए मेरी कोई मजबूरी नहीं है. पूरे होशो-हवास में किया गया फ़ैसला है. बस मैं चाहता हूं कि मुझे और मेरे दुख को आप खुद ढूंढें और यदि ढूंढ पाएं तो समझें कि आप के किए की सजा शहर को भुगतनी पड़ती है. तारीख़ किसी शहर को दूसरा मौक़ा नहीं देती.

अब खुद को बीच से हटाता हूं. आप किरदारों के हवाले हुए, बिस्मिल्लाह कहिए!’

 

उपन्यास का नामः चौरासी
लेखकः सत्य व्यास
प्रकाशकः हिंद युग्म
पेपरबैक, पृष्ठः 160, मूल्यः रु 125

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